Tuesday, February 16, 2010

मेरी दीक्षा

एक सायं बनोरा आश्रम में बाबा के कक्ष में मैनें याचना की "बाबा मुझे दीक्षा दीजीये"
बाबा-"क्यों बन्धना चाहते हो, मन से गुरू मान लो बस हो गया"
मैं--"३५ वर्षों से स्वतन्त्र ही हूँ, अब बन्धना चाहता हूँ"
बाबा चुप हो गये और शून्य में देखने लगें । घोर नि:शब्द्ता व्याप्त हो उठी । कहीं भी कोई आवाज नहीं । उस पल का गवाह बनने के लिये सूर्य ने गरदन झुका कर कमरे में झाँका । सायं के सूर्य की पीली रोशनी से कमरा नहा उठा । न जाने कितने वक्त मैं इस रोशनी में नहायी नि:शब्द्ता में डूबा रहा । पहली बार महसूस किया, कुछ पल समय के दायरे से बाहर होते हैं ।

तब गुरुदेव ने कहा -"वह तो नवरात्री के बाद होता है।"

इस स्वीकृति से मन उमन्ग से भर गया ।

फ़िर करिब ९ महीने बाद, ३०.०९.२००९ को गुरुदेव ने शिवरी नारायण आश्रम में मुझे मन्त्र दीक्षा दी और मेरे लिये सम्भावनावों का सन्सार खोल दीया ।

श्री गुरुवे नम: ।